अलख

…………..डूबते सूरज की रोशनी उड़ती धूल और लौटते मवेशियों की बजती घंटियाँ। गौधूलिवेला के वो दृश्य अभी भी मेरी आंखों में बसे हुए हैं।……..ये जहां फेक्ट्रियाँ खड़ी हो गई है यहां हमारी बस्ती के किनारे-किनारे एक मील से भी ज्यादा लम्बा-चैड़ा मैदान था, जिसकी भुरभुरी मिट्टी में बच्चों और नौजवानों की पचासों टोलियाँ फुटबॉल-वॉलीबाल, कब्बड्डी, खो-खो, गुल्ली डन्डा, तड़ापड़ी खेलती नजर आती थीं। और धीरे-धीरे वो मैदान सबको अंधेरे में लेकर डूब जाता था……….फिर घरों से पुकारने की आवाजें शुरू हो जातीं थी………..

वृद्ध प्रकाश की आँखों में बचपन का गुड्डू झांकता नजर आ रहा है वो कुछ क्षणों के लिए मौन हो गए, उसकी आँखे नम हो गंई…….उन्हे अपनी माँ के पुकारने की आवाज सुनाई दे रही है।…….‘‘गुड्डू……ऐ गुड्डूआ……अरे घर आ जा रे…….बहुत खेल हो गया ऐ गुड्डू………..’’ Continue reading